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________________ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ] [ १४१ I और उपयोग सहित ध्यानमें जिस वक्त अपने जीवको सिद्ध माने उस वक्तमें वो सिद्ध है । इसलिये इस नय वालेने क्षायिकसमकितवालेको सिद्ध माना । तब शब्दनयवाला कहने लगा कि जो शुद्ध शुक्लध्यान रूप परिणाम और नामादि निक्षेपासे होय सो सिद्ध है । तब समभिरूढ़ नयवाला बोला कि जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र आदि गुणवन्त होय सो सिद्ध है । इस नय बालेने १३ वें गुणठाने अथवा १४ वे गुणठाने वाले केवलीको सिद्ध कहा । तब एवंभूत नयवाला बोला कि जो सकल कर्म क्षय करके लोक के अन्त में विराजमान अष्टगुण करके संयुक्त है सो सिद्ध हैं । इस रीतिलें, सिद्धपद में ( ७ ) नय कहे । इसीरीत अनेक चीजोंके उपर यह सातो नय उतरते हैं परन्तु इस जगह तो एक जिज्ञासुके समझानेके वास्ते थोड़ासा ही उतारकर दिखाया है, क्योंकि जास्ती चीजोंके ऊपर उतारनेसे ग्रंथ बहुत बढ़ जायगा । इस रीति से ( ७ ) नय करके बचन हैं सो प्रमाण है । इन सातो नमें से जो एक भी नय उठावे सो ही अप्रमाण है । जो कोई इन सात नय संयुक्त वचनके मानने वाले हैं वे ही इस स्याद्वादमती अर्थात्... जिनधर्मी हैं। इससे जो विपरीत सो मिथ्यात्वी हैं । इस रीति से यह एक-अनेक पक्ष दिखलाया है, किञ्चित् विस्तार बतलाया है, द्रव्यका ध्रुव लक्षण इसके अन्तर्गत आया है, अब त्य असत्य और वक्तव्य अवक्तव्य कहनेको चित्त चाया है, उसके अन्तर्गत श्री वीतरागदेवने प्रमाणका स्वरूप फरमाया है, उसके अनुसार किंचित् चित्त मेरा कहनेको हुलसाया है. इस ग्रंथ में अनुभव रस छाया है, आत्मार्थियोंको द्रव्यका अनुभव बताया है, इसमें करेगा अभ्यास उसके वास्ते इसमें आत्मस्वरूपको लखाया हैं, इसमें कितना ही रहस्य सिद्धान्तका दिखाया है, आत्मार्थी जिज्ञासुओंके यह कथन मन भाया है, चिदानन्द शुद्ध गुरु उपदेश चित्त भाया है, जैन धर्म चिन्तामणि रत्न समान कोई बिरला जन पाया हैं । इस रीति से यह एक-अनेक पक्ष कहा । अब सत्य, असत्य, और वक्तव्य, अवक्तव्य इन पक्षका -किञ्चित् Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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