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________________ द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।] जगह संग्रह जायेंगे, इस लिये उपनय आदिकका भी कहना अप सिद्धान्त है, क्यों कि-श्री अनुयोगद्वार सूत्रमें नयका भेद दिखाया है सो वहांसे देखो। दूसरा और सुनों कि जो उपनयक है, सो नयगम व्यबहारादिकसे अलग नहीं। उक्तञ्च तत्वार्थ सत्रे “उपचार बहुलो विस्र तार्थों लौकिक प्रायो व्यवहारा इति बचनात्" इसलिये नयका जो भेद है उसको उपनय करके माने तो और भी दूषण आता है सो ही दिखाते हैं कि “स्वयपरब्यवसाईशानंप्रमाण” इस लक्षण करके लक्षित जो ज्ञान उसका एक देश मतिज्ञानादिक अथवा अवग्रहादिक हैं सो उनको उप प्रमाण कहना ही पड़ेगा, क्योंकि शास्त्रोंमें किसी जगह उपप्रमाण कहा नहीं, इसलिये इस वोटकमत अर्थात् दिगम्बर जैनाभासकी कही हुई जो नय उपनय है सो ही शिष्यकी बुद्धिभ्रमजालमें गेरनेवाली है। और उपनयमें जो नव भेद उपचारसे किये है सो भी प्रक्रिया ठीक नहीं, केवल जिज्ञासुको भ्रमजालमें गेरकर बाद विवाद करना है, जिज्ञासुको संसारमें डुबाना है, इस श्याद्वाद सिद्धान्तका रहस्य कभी न पाना है, बिबेक सून्य बुद्धि विचक्षणका दिखाना है, प्रथके बढ़ जानेके भयसे निष्प्रयोजन जानकर न लिखाया है। इस जगह किसीको भ्रम उठे तो हम किंचित् दिखाते हैं कि “पर्याय द्रव्य उपचार" कहा है, सो ठीक नहीं बनता, क्योंकि देखो उस नय चक्रमें ऐसा कहा है कि 'पर्याय द्रव्य उपचार' जैसे शरीरको आत्मा कहना, इस जगह देह रूप पुरलपर्यायके विषय आत्मद्रव्यका उपचार करा है, सो उसका कहना ठीक नही बनता, क्योंकि उसकी बिबेक सन्य बुद्धि होनेसे ? जो उसकी बिबेक सन्य बुद्धि न होती तो पर्यायमें द्रव्यका उपचार इसरीति से न करता, किन्तु ऐसे करता सो ही दिखाते हैं कि “पर्यायमें द्रव्यका उपचार” इसरीतिसे बन सक्ता है कि अगुरु लघु जो पर्याय है उस अगुरु लघु ही का नाम काल हैं, सो वो पर्याय जीव अजीवका है परन्तु उस अगुरु लघु पर्यायको छठा काल द्रव्य करके कहा है। इसरीतिसे पर्यायमें द्रव्यका उपचार कहता तो ठीक होता, परन्तु जिन्होंने शुद्ध गुरुके चरण कमल न सेवे और केवल जैनी नाम धरायकर श्याद्वादः Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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