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________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर। १०० ] 1 पयर्थिक ६ भेदको गुणा करें तो अठारह (१८) भेद होते हैं । सो इन तीनोंके अठारह और ऋजुसूत्रके बारह मिलायकर तीस भेद हुए, सो तीस तो पयार्थिक और ७० द्रव्यार्थि कके मिल कर १०० भेद हुए, सो इन सौ १०० भेदों को सप्त भंगी के साथ फैलावें अर्थात् गुणा करें तो ७०० भेद होते हैं। इस रीति से सिद्धान्तोंकी प्रक्रियाको गुरू कुलवास सेवने वाले आत्मार्थी अध्यात्म शैली आत्म अनुभव सूक्ष्म विचार से अपनी बुद्धिमें विचारते हैं। और एकान्त ऋजुसूत्र नयको न द्रव्यार्थिक ही कह सके और न पर्यार्थिक ही कह सके, हां अलवत्त दोनों के आशय को अपनी बुद्धिमें बिचारते हैं कि आचार्य इस आशय से कहते हैं। क्यों कि देखो - जब ऋजुसूत्रको केवल द्रव्यार्थिक माने तो ऋजुसुत्रके दो भेद होनेसे द्रव्यार्थिक १० भेदसे गुणा करें तो २० भेद हो जायगे, तब उस बीस भेदको मिलावें तो १०८ भेद हो जायगे ? जब १०८ भेद हो गये तो १०० भेद जो सिद्धान्तोंमें कहे हैं सो क्यों कर मिलेंगे, इसलिये इन आचार्योंके आशय को तो वहि लोग बिचार सक्त हैं कि जिन्होने , गुरुकुलबास अध्यात्म शैलिसे आत्म अनुभव किया है वही लोग जान सकते हैं न तु जैनी नाम धरानेसे । 1 इसरीतिसे प्रसंगगत् किंचित् बर्णन किया सो इस वर्णन करनेका तात्पर्य यही है कि शास्त्रोंमें आचार्योंने द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक इन दोनों भेदोंका कथन मूल सात नयमें किया है और दुव्यार्थिक, पर्यार्थिक जुदा न किया, परन्तु न मालुम इस देवसेनबोटक अर्थात् दिगम्बर जैनाभासने इस द्रव्यार्थिक पर्यार्थिकको जुदा छांट कर नव नय क्यों कह दिया, और संसार बढ़ानेका भय किचिंत् भीन किया, और जैनी नाम धराय लिया, भोले जीवोंको जाल में फसाय दिया, मिथ्या मतको चलाय दिया। क्योंकि देखो अन्तरगत है, सातनयके ऐसा 'जो द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नय तिसका जुदा करके उपदेश क्योंकर बने । कदाचित् जो वो दिगम्बर ऐसा कहे कि मतान्तरले I जैसे ५ नय कहा है, उस पांच नयमें दो नय भी अन्तरगत तुम उन पांच नयमेंसे दो नय अलग (जुदा) निकालकर ७ नयका उपदेश Scanned by CamScanner होते हैं।
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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