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________________ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ] [ ६५ अब तीसरा भेद कहते हैं कि - यह मेरा गढ़, देश, नगर, प्रमुख है, सो स्वजाति विजाति सम्बन्ध कल्पित उपचरित असद्भूत व्यवहार है, क्योंकि गढ़ देशादिक जीव, अजीव उभय समुदाय रूप है, इसरीतिले 'उपनय कहा । अब अध्यातम भाषा करके मूल दो नय मानता है उसकी भी 'प्रक्रिया दिखाते हैं- कि एक तो निश्चय नय, दूसरा व्यवहार नय, सो निश्चय नयके दो भेद हैं, एक तो शुद्ध निश्चय नय, दूसरा अशुद्ध निश्चय नय, सो प्रथम शुद्ध निश्चय नय को कहते हैं कि — जेले जोव है सो केवल ज्ञानादिक रूप है, इस लिये कर्म उपाधि रहित केवल ज्ञानादिक. 6. शुद्ध गुण ले करके आत्मा में अभेद दिखलावे सो शुद्ध “निश्चय नय कहिये और जो मति ज्ञानादिक अशुद्ध गुणको आत्मा "कहे-सो अशुद्ध निश्चय नय है, सो पाधिक है, इसलिये जो निश्चय नय सो अभेद दिखाते है, और व्यवहार नय है सो भेद दिखाते है । सो व्यबहार नयके दो भेद हैं एक सद्भुत व्यवहार, दूसरा असद्द्भुत - व्यबहार । जो एक द्रव्य आश्रित ( सहारा ) है सो सद्भुत व्यब- हार है। और जो पर विषयक है सो असद्द्भुत व्यबहार है। सो प्रथम जो सद्भुत व्यवहार है. सो दो प्रकारका है, एक उपचारित सद्भुत -व्यवहार, दूसरा अनुपचरित सद्भुत व्यवहार । जो स्वय सोपाधिक गुण--गुणीका भेद दिखलावें, जैसे जोवका मतिज्ञान यह उपाधि हैं सां ही उपचरित है। दूसरा निपाधिक गुणगुणीका भेद दिखावे, जैसे जीब' - का केवल ज्ञान, यहां उपाधि रहित पना है सो ही निर उपचरित हैं। अब असद्द्भुत व्यबहारके भी दो भेद है, एक उपचरित असत · व्यवहार, दूसरा अनुपचरित असद्द्भुत व्यबहार तिसमें प्रथम भेद कहते हैं: कि असंश्लेषित योग करके कल्पित सम्बन्ध होय, जैसे देवदत्तका धन है, -इस जगह धन है सो देवदत्तके स्वय स्वामी भावरूप कल्पित सम्बन्ध है -इसलिये उपचार कहा, क्योंकि देवदत्त और धन सो जाति करके दोनों एक द्रव्य नहीं इसलिये अद्भुत भावना करी सो उपचरित असत व्यबहार जानना । Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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