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________________ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।] - [८५ नयके विषयको ग्रहण करे नहीं तो फिर भेद, अभेद, उपचार आदि क्यों मानते हो। .. (उत्तर ) भो देवानुप्रिय यह तेरा प्रश्न करना जिन धर्मका अजान 'सिद्धान्त को सैली रहित एकान्त बाद मिथ्यात्वके ग्रहण करने वालेका सा प्रश्न है, सो प्रश्न बनता नहीं क्योंकि देखो स्याद्वाद सिद्धान्तमें ऐसा कहा हुआ है कि नय ज्ञानमें नयान्तर अर्थात् दूसरी नयका मुख्य अर्थ है सो सर्व अंश करके अमुख्य पने न भाषे, और स्वतंत्र भावे सर्वथा करके दूसरी नयको अमुख्य पने कहे, सो मिथ्या द्रष्टीमें है, अर्थात् दुर्नयका कहने वाला है। परन्तु सुनय कहने वाला नहीं। सो इस नय बिचारका कथन, विशेषावश्यक, और सम्मति ग्रन्थों में विस्तार है सो वो ग्रन्थ तो मेरे पास हैं नहीं इसलिये वहां की गाथा आदिक न लिखी, परन्तु सुनय और दुर्मयका लक्षण शास्त्रानु सार दिखाते हैं, कि "स्वार्थ ग्राही इतरांशा प्रति क्षेपी सुनय”; इति सुनय लक्षणं । “स्वार्थ ग्राही इतरांशा प्रति क्षेपी दुर्नय, इति दुर्नय लक्षणं । इन लक्षणोंका अर्थ करते हैं कि स्वार्थ ग्राहीके० अपने अर्थको यथावत ग्रहण करे और इतरांश के दूसरी नयके अर्थको अप्रति क्षेपीके० एकान्त करके निषेध न करे, उसका नाम सुनय है, इससे जो बिपरीति अर्थवाला वही दुर्नय है। इसलिये नय विचामें भेद अभेदका जो गहण सो व्यवहार संभवे, तथा नय सांकेत विशेष गाहक बृत्ति विशेष रूप उपचार पिण संभवे । इसलिये भेद, अभेद, मुख्य पने प्रत्येक नय विषय मुख्य, अमुख्य पने उभय नय विषय उपचार है, मुख्य बृत्तिकी तरह नय परिकर पिण विषय नहीं, इसरीतिका जो सूधा मारग सो अनादि परम्परा वाला जो श्वेताम्बर उसके श्याद्वाद सिद्धान्तमें सूधा मारग है। .. परन्तु जैना भास अर्थात् दिगम्बर आमना वाला बिवेक सुन्य बुद्धि विचक्षण उपचार आदिक ग्रहण करनेके वास्ते उपनयकी कल्पना करता है, सो उसकी नवीन कल्पनाका जो प्रपंच उस प्रपंचका जोउनके तर्क शास्त्रके प्रमाणे जिज्ञासुकी बुद्धि शुद्ध मार्गसे चलायमान न होय, इस वास्ते उनके ही शास्त्र अनुसार उनकी प्रक्रिया दिखाते हैं। Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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