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________________ ८०] [द्रव्यानुभव-रत्नाकर। करके (उदवर्तन न्यायः संसारी जीवकी अपेक्षा और उदवर्तन न्याय करके (उदव उसको कहते हैं कि जैसे पानीका बर्तन चूल्हेके ऊपर चढ़ाय नीचे जलावे उस अग्निके ज़ोरसे वो पानी उस वर्तनमें नीचे रे घूमता है) मिथ्यात्व अर्थात् अज्ञान रूप कर्मबन्ध अग्निसेही प्रदेश फिरते हैं, और चौरासी लाख जोवा योनिको अपेक्षा आकुचन ( कम होना ) प्रसारन (बढ़ जाना ) इस अपेक्षासे सात सान्त है, परन्तु सिद्ध क्षेत्रमें सिद्ध जोवोंको अपेक्षासे जो सिद्ध जोवों के प्रदेश है सो स्थिरी भूत होनेसे सिद्ध जीव क्षेत्रमें यह भांगा नहीं बनता। और जीव द्रव्यका स्वयकाल अर्थात् अगुरु लघुपर्याय करके तो अनादि अनन्त है, परन्तु उत्पाद वयको अपेक्षा करें तो जीव द्रव्यका स्वकाल सादी सान्त है। जीव द्रव्यका स्वयभाव अर्थात् ज्ञानादि मुख्य गुण समवाय सम्बन्धसे तो अनादि अनन्त है, परन्तु सर्वजीवकी अपेक्षा और लौकिक अशद्ध व्यवहार तिरोभाव आविर भावको अपेक्षासे मति. श्रुति आदिक ज्ञान सादो सान्तभो होता है, और सिद्ध जीवके आविर भाव केवल ज्ञानको अपेक्षासे सादो अनन्त भांगा होता है, इसरीतिसे. जीव द्रव्य में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें चौभागी कही। ___ अब धर्मस्ति कायके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें चौभगी कहते है। धर्मस्ति कायका स्वय दृश्य अर्थात् गुण पर्यायका भाजन रूपतो अनादि अनन्त हैं, और धर्मस्ति कायका स्वय क्षेत्र अर्थात् असंख्यात् प्रदेश लोक प्रमाण खन्द रूपतो अनादि अनन्त है, और देश प्रदेश काई अपेक्षाले सादी सान्त है, और धर्मस्ति कायका स्वयकाल अथात अगुरुलघु पर्याय तो अनादि अनन्त है, परन्तु उत्पाद वयको अपेक्षास सादी सान्त है। धर्मस्ति कायका । स्वयभाव चलन सहाय आदि मुख्य गुण अनादि अनन्त है, परन्तु कोई जीव, पुदलको सहाय देती दफे उस गुणको सादी सान्त माने तो भी हो सक्ता है। इसीरीतिसे अधमा कायमें जान लेना। अब आकाशास्तिकायमें चौभंगी कहते है। आकाशका स्वय मर्थात् गुण पर्यायका समूह सो तो अनादि अनन्त है; * स्ति भाकाशका स्वय द्रव्य अनन्त है; आकाशका Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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