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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ७ त्वय्यादर्शतलालीन- प्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्व - कथाऽपि वपुषः कुतः ? ॥४॥ अर्थ - आप दर्पण में प्रतिबिम्बित रूप के समान निर्मल होने से आपका देह झरते हुए पसीने से व्याप्त हो गया है । ऐसी कथा भी कहाँ से हो ? । (४) न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव । वपुः स्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥५॥ अर्थ - हे वीतराग ! केवल आपका मन रागरहित हुआ है, ऐसा नहीं है, बल्कि आपके शरीर में बहता हुआ रक्त ( रुधिर) भी दूध की धारा की तरह उज्ज्वल है । अर्थात् आपके रुधिर में से भी स्वाभाविक राग-रंग-लालसा चली गई है । (५) जगद् विलक्षणं किं वा, तवान्यद्वक्तुमीश्महे ? | यदविस्त्रमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो ! ॥६॥ अर्थ - तथा विश्व से विलक्षण ऐसा आपका अन्य वर्णन हम क्या कर सकते ? कारण कि हे प्रभु । आपके शरीर का मांस भी दुर्गन्ध और दुगंच्छारहित (गाय के दूध के समान) श्वेत है । (६) जलस्थलसमुद्भूताः, संत्यज्य सुमनः स्रजः । तव निःश्वाससौरभ्य - मनुयान्ति मधुव्रताः ॥७॥ अर्थ - हे वीतराग ! भ्रमरगण जल में या स्थल में
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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