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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् एकोनविंशतितमः प्रकाशः तव चेतसि वर्तेऽह-मिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्तसे चेत्त्व-मलमन्येन केनचित् ॥१॥ अर्थ - [हे देवाधिदेव !] मैं आपके अन्तःकरण अर्थात् चित्त में वर्तुं (रहूँ) यह वार्ता ही दुर्लभ (असंभवित) है। किन्तु जो आप मेरे अन्तःकरण याने चित्त में वर्ते (रहें) तो अन्य कोई भी (प्रभुतादि देने) द्वारा सर्यां (अर्थात् आपके अतिरिक्त मुझे किसी की आवश्यकता नहीं । (१) निगृह्य कोपतः कांश्चित्, कांश्चित्तुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥ अर्थ - अन्य (हरिहरादि) देव कितने को क्रोध से शापवधादि के द्वारा निग्रह करके तथा कितने (अपने भक्तजनों) को प्रसन्नता द्वारा वरदानादि देकर अनुग्रह करके मुग्धबुद्धि वाले जनों को ठगते हैं उससे आप जिस के चित्त में निवास करते हैं, वे मनुष्य उन देवों से ठगते नहीं और इसी तरह मेरे चित्त में निवास करते हैं, तो मैं कृतकृत्य ही हूँ। (२) अप्रसन्नात् कथं प्राप्यं, फलमेतदसङ्गतम् । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतनाः ॥३॥ अर्थ - राग और द्वेषादि का अभाव होने से कभी भी प्रसन्न नहीं होने वाले ऐसे वीतराग देव से किस तरह (मोक्षादि)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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