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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - दान, शील, तप और भावरूप चार प्रकार के धर्म को एक साथ कथन करने के लिये आप चतुर्मुख बने हैं, ऐसा मैं मानता हूँ । (४) त्वयि दोषत्रयात् त्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रु-स्त्रयोऽपि त्रिदिवौकसः ॥५॥ अर्थ - राग, द्वेष और मोहरूप तथा मन, वचन और काया सम्बन्धी तीन दोषों से त्रिभुवन को बचाने के लिये आप प्रवृत्त होने से तीन प्रकार के [वैमानिक, ज्योतिषी और भुवनपति] देवों ने रत्नमय, सुवर्णमय और रूप्यमय तीन गढ़ों की रचना की है। (५) अधोमुखाः कण्टकाः स्यु-र्धात्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ? ॥६॥ अर्थ - [प्रभो !] जब पृथ्वी पर आप विचरण करते हैं, तब कण्टक-काँटे भी अधोमुखी (नीचे मुख वाले-उल्टे) हो जाते हैं । जब सूर्य का उदय हो जाता है तब उल्लू अथवा अन्धकार का समूह क्या टिक सकता है ? [अर्थात्-आप जैसे सूर्य के उदय होने पर तत्काल मिथ्यात्वरूपी उल्लू और अज्ञानरूपी तिमिर-अन्धकार का समुदाय दूर हो जाता है।] (६)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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