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________________ १२ स एष योगसाम्राज्य-महिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाश्चर्यकारणम् ? ॥१२॥ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - हे भगवन् ! धाती कर्म के क्षय से उत्पन्न लोकप्रसिद्ध योगसाम्राज्य की महिमा किस सचेतन प्राणी के लिए आश्चर्यकारी नहीं होती ? अर्थात् समस्त सचेतन प्राणी समुदाय के लिए आश्चर्यकारी होती है । (१२) अनन्तकालप्रचित-मनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नान्यः कर्मकक्ष - मुन्मूलयति मूलतः ॥१३॥ अर्थ - अनन्तकाल से उपार्जन किये हुए और अन्त रहित कर्मरूपी वन आपके अतिरिक्त कोई भी समस्त प्रकार से मूल से उच्छेद नहीं कर सकता । (१३) तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं क्रियासमभिहारतः । यथानिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमाशिश्रियः ॥१४॥ अर्थ - हे प्रभो ! चारित्ररूप उपाय में पुनः पुनः अभ्यास से आप इतने प्रवृत्त हो गये हैं कि परमपद की श्रेष्ठ संपदारूप तीर्थंकर पदवी नहीं चाहते हुए भी आपको प्राप्त हुई है । (१४) 1 मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ अर्थ - मैत्री भावना के पवित्र स्थानरूप, पुष्ट प्रमोद भावना से शोभित तथा करुणा भावना और माध्यस्थ भावना द्वारा पूज्य ऐसे योगस्वरूपी आपको हमारा नमस्कार हो । (१५)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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