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________________ ५४ तत्त्वार्थ सूत्र आर्त्त-ममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३१॥ अर्थ – अनिष्ट पदार्थ / व्यक्ति का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना प्रथम आर्त्तध्यान है । वेदनायाश्च ॥३२॥ अर्थ – वेदना होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना द्वितीय आर्तध्यान है। विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥३३॥ अर्थ - इष्ट पदार्थ का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत् चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है। निदानं च ॥३४॥ अर्थ - धर्माराधना के फलस्वरूप सांसारिक वस्तु की प्राप्ति के लिए सतत् चिंतन करना चतुर्थ आर्त्तध्यान है। तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ॥३५॥ अर्थ - यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत तक होता है। हिंसा-ऽनृत-स्तेय-विषयसंरक्षणेभ्यो-रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३६॥ __ अर्थ - हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण - इन चार का सतत् चिन्तन करना रौद्रध्यान है, जो अविरत और देशविरत जीवों को होता है।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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