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________________ तत्त्वार्थ सूत्र अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्त्व-इनका अनुचितन करना ही अनुप्रेक्षा (भावना) है। __ मार्गा-ऽच्यवन-निर्जरार्थं-परिसोढव्याः परीषहाः ॥८॥ अर्थ - मोक्ष मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य है, उन्हें परीषह कहते हैं। क्षुत्-पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्या-ऽरतिस्त्री-चर्या- निषद्या-शय्या-ऽऽक्रोश-वध-याचनाऽलाभ-रोग-तृणस्पर्श- मल-सत्कार पुरस्कार-प्रज्ञाऽज्ञाना-ऽदर्शनानि ॥९॥ अर्थ - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषधा, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन - ये परीषह के बाईस प्रकार हैं। सूक्ष्मसंपराय-छद्मस्थ-वीतरागयो-श्चतुर्दश ॥१०॥ अर्थ - सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह और क्षीणमोह गुणस्थानो में चौदह परीषह होते हैं । एकादश जिने ॥११॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान को अर्थात् १३वें गुणस्थान में ग्यारह परीषह हो सकते हैं।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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