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________________ तत्त्वार्थ सूत्र अर्थ - इन क्षेत्रों का विभाजन करनेवाले छ: वर्षधर पर्वत हैं - हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी, जो पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए हैं। द्वि-र्धातकी खण्डे ॥१२॥ अर्थ - धातकी खण्ड में क्षेत्र और पर्वत जम्बूद्वीप से दुगुने हैं। पुष्करार्धे च ॥१३॥ अर्थ - पुष्करवरार्द्धद्वीप में भी (घातकीखण्ड द्वीप के समान) उतने ही क्षेत्र और पर्वत हैं । प्राग्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥१४॥ अर्थ - मानुषोत्तर पर्वत के पहले तक ही मनुष्य हैं। आर्या म्लेच्छाश्च ॥१५॥ अर्थ - मनुष्य दो प्रकार के हैं १. आर्य और २. म्लेच्छ । भरतैरावत-विदेहाः कर्मभूमयो-ऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरूभ्यः ॥१६॥ अर्थ - देवकुरू और उत्तरकुरू के सिवा, भरत, ऐरावत और विदेह ये सब कर्मभूमियाँ है । नृस्थिती परापरेत्रि-पल्योपमाऽन्तर्मुहूर्ते ॥१८॥ अर्थ - मनुष्य की उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त होती है। तिर्यग्योनीनां च ॥१९॥ अर्थ - तिर्यंचों की भी आयु इतनी ही होती है।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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