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________________ ९६ श्री अष्टक प्रकरण अचिन्त्यपुण्यसम्भार- सामर्थ्यादेतदीदृशम् । तथा चोत्कृष्ट पुण्यानां, नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये ॥५॥ अर्थ - भगवान के एक ही प्रकार के वचन से असंख्य जीवों को भिन्न-भिन्न अर्थ का बोध होने का कारण, उनका उस प्रकार के अचिन्त्य पुण्यप्रकर्ष का प्रभाव ही हैं । उत्तम पुण्यशाली जीवों को तीन लोक में कुछ भी असाध्य नहीं हैं । अभव्येषु च भूतार्था, यदसौ नोपपद्यते । तत्तेषामेव दौर्गुण्यं, ज्ञेयं भगवतो न तु ॥६॥ अर्थ - जीवादि तत्त्व संबंधी यह वाणी अभव्यों के संबंध में परिणाम नहीं पाती, इसका कारण उनका (अभव्यों) का ही दोष हैं, न कि भगवान का । दुष्टश्चाभ्युदये भानोः, प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणाम् । अप्रकाशो ह्युलूकानां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥७॥ अर्थ - सूर्य का उदय होते ही स्वाभाविक क्लिष्ट कर्मवाला उल्लू आँखों से नहीं देख सकता, यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । इसी प्रकार यहाँ भी विचारना । इयं च नियमाज्ज्ञेया, तथानन्दाय देहिनाम् । तदात्त्वे वर्तमानेऽपि, भव्यानां शुद्धचेतसाम् ॥८॥ अर्थ - वृद्ध दासी के दृष्टान्त के अनुसार देशना - समय पर और वर्तमान में भी भगवान की देशना शुद्ध चित्तवाले भव्य जीवों को अवश्य आनंद देती हैं ।
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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