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________________ श्री अष्टक प्रकरण एवमाहेह सूत्रार्थं, न्यायतोऽनवधारयन् । कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य, न्यायलेशोऽत्र दर्श्यते ॥४॥ अर्थ - यहाँ पूर्वपक्ष वादी सौगत सूत्र के (-तीर्थंकरों के दान के संख्यासूचक सूत्र के) अर्थ को भली भांति जाने बिना अज्ञानता से इस प्रकार (पूर्व में जो कहा है वैसा) कहते हैं । इससे यहाँ उनको थोड़ी युक्ति कहते हैं । महादानं हि संख्यावदर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः । सिद्धं वरवरिकातस्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥५॥ अर्थ - तीर्थंकर का महादान अर्थी न होने से संख्यावाला हैं, न कि उदारता अथवा द्रव्य के अभाव से। कारण कि तीर्थंकरों के महादान के समय वरवरिका की (जिसको जो चाहिए वहा माँगो) उद्घोषणा की जाती हैं, ऐसा शास्त्र में कहा गया हैं । अर्थात् तीर्थंकर तो अपरिमित दान देते हैं किन्तु उसको लेनेवाले ही बहुत कम लोग होने से दान परिमित होता हैं। तया सह कथं संख्या, युज्यते व्यभिचारतः । तस्माद्यथोदितार्थं तु, संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥ अर्थ - वरवरिका के साथ संख्या का मेल किस प्रकार होगा? नहीं होगा। इससे परिमित दान में कोई कारण होना ही चाहिए । यह कारण हैं बहुत अर्थियों का अभाव । अर्थी बहुत हों तो वरवरिका से दिया जानेवाला दान परिमित
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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