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________________ ७४ श्री अष्टक प्रकरण २४. अथ पुण्यादिचतुर्भङ्ग्यष्टकम् गेहाद् गेहांतरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः । याति यद्वत्सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद् भवम् ॥१॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य अच्छे घर से, उससे भी दूसरे अधिक सुंदर घर में रहने के लिए जाता हैं, वैसे ही जीव पुण्यानुबंध पुण्य के उदय से मनुष्यादि सुंदर भव से अन्य देव आदि सुंदर भव में जाता हैं । गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादितरन्नरः । याति यद्वदसद्धर्मात्, तद्वदेव भवाद् भवम् ॥२॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य अच्छे घर से अन्य खराब घर में रहने के लिए जाता हैं, वैसे ही जीव पापानुबंधी पुण्य के उदय से मनुष्यादि शुभ भव से अन्य नरकादि अशुभ भव में जाता हैं यह पुण्य निदान ( नियाणा) और अज्ञानता से दूषित धर्मअनुष्ठान से (ब्रह्मदत्त चक्री आदि के समान) प्राप्त होता हैं । I गेहाद् गेहान्तरं कश्चि- दशुभादधिकं नरः । याति यद्वन्महापापात्, तद्वदेव भवाद् भवम् ॥३॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य खराब घर में से अन्य अधिक खराब घर में रहने के लिए जाता हैं, वैसे ही जीव पापानुबंधी पाप के उदय से तिर्यंचादि अशुभ भव से अन्य अधिक अशुभ नरक आदि भव में जाता हैं । घोर हिंसादि से ऐसा पाप बंधता हैं ।
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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