SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अष्टक प्रकरण स एवं गदितस्ताभि - योनरकहेतुताम् । आलोच्य मद्यरूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् ॥६॥ मद्यं प्रपद्य तद्भोगान्नष्टधर्मस्थितिर्मदात् । विदंशार्थमजं हत्वा, सर्वमेव चकार सः ॥७॥ ततश्च भ्रष्टसामर्थ्य , स मृत्वा दुर्गतिं गतः। इत्थं दोषाकरो मद्यं, विज्ञेयं धर्मचारिभिः ॥८॥ अर्थ - उग्र तप से अणिमादि आठ प्रकार की लब्धियों को प्राप्त करने पर भी एक ऋषि देवांगनाओं से आकर्षित होकर मद्यपान करने से मूर्ख मनुष्य के समान मृत्यु को प्राप्त हुआ; ऐसा पुराण-कथाओं में सुना जाता हैं। किसी ऋषि ने जंगल में रहकर हजारों साल तक उग्र तप की साधना की। उग्र तप के प्रभाव से यह ऋषि मुझे इंद्रपद से च्युत करेगा, ऐसी शंका से इंद्र घबरा गया । ऋषि को तप की साधना से पतित करने के लिए देवांगनाओं को उसके पास भेजा । ऋषि के पास आकर देवांगनाओं ने अंजलिपूर्वक प्रणाम, विविध प्रकार की स्तुति आदि अनेक प्रकार के विनय से ऋषि को प्रसन्न किया । प्रसन्न हुए ऋषि ने देवांगनाओं से वरदान मांगने को कहा । देवांगनाओं ने मद्य, हिंसा अथवा अब्रह्म इन तीनों में से किसी एक का सेवन करो ऐसा कहा। यह सुनकर ऋषि ने सोचा कि इन तीनों में से
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy