SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अष्टक प्रकरण अचानक संपातिम जीव आकर मर जाये तो साधु को हिंसा नहीं लगती ।] ५० ततः सदुपदेशादेः क्लिष्टकर्मवियोगतः । शुभभावानुबन्धेन, हन्ताऽस्या विरतिर्भवेत् ॥४॥ अर्थ - परिणामी आत्मा में हिंसा की उत्पत्ति से, सदुपदेश आदि द्वारा अशुभ कर्मों के वियोग से (क्षयोपशम होने से) तथा शुभ अध्यवसाय की परंपरा होने से हिंसा से निवृत्ति होती हैं । अहिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । एतत्संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्यादि पालनम् ॥५॥ अर्थ - यह पारमार्थिक अहिंसा स्वर्ग और मोक्ष का कारण हैं। सत्यादि का पालन भी अहिंसा के रक्षण के लिए जरूरी हैं । स्मरण-प्रत्यभिज्ञान - देहसंस्पर्शवेदनात् । > अस्य नित्यादिसिद्धिश्च तथा लोकप्रसिद्धितः ॥६॥ अर्थ - स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, देह संस्पर्शवेदन और लोकप्रसिद्धि से आत्मा के नित्यत्वानित्यत्व धर्म की तथा देह से भिन्नत्वाभिन्नत्व धर्म की सिद्धि होती हैं । देहमात्रे च सत्यस्मिन्, स्यात्सङ्कोचादिधर्मिणि । धर्मादेरूर्ध्वगत्यादि, यथार्थं सर्वमेव तु ॥७॥ अर्थ - आत्मा को सर्वगत मानने से पूर्व में (अष्टक
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy