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श्री अष्टक प्रकरण
१५. अथ क्षणिकवादनिराकरणाष्टकम् क्षणिकज्ञानसन्तान - रूपेऽप्यात्मन्यसंशयम् । हिंसादयो न तत्त्वेन, स्वसिद्धान्तविरोधतः ॥१॥
अर्थ - प्रतिक्षण नाश पानेवाली आत्मा में भी निःसंदेह हिंसादि स्थापित नहीं हो सकते । कारण कि अपने ही आगम का विरोध होता हैं।
नाशहेतोरयोगेन, क्षणिकत्वस्य संस्थितिः । नाशस्य चान्यतोऽभावे, भवेद्धिसाप्यहेतुका ॥२॥
अर्थ - नाश के कारण नहीं स्थापित होने से क्षणिकत्व की - प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक क्षण स्वयमेव नाश होता हैं, ऐसे सिद्धांत की स्थापना की हैं। इससे किसी भी वस्तु का (स्वयं के स्वभाव के सिवा) अन्य किसी भी कारण से नाश न होने से अर्थात् सर्व वस्तुओं का नाश बिना किसी कारण के होने से, हिंसा (जीव का नाश) भी निर्हेतुक हो जायगी।
ततश्चास्याः सदा सत्ता, कदाचिन्नैव वा भवेत् । कदाचित्कं हि भवनं, कारणोपनिबन्धनम् ॥३॥
अर्थ - हिंसा निर्हेतुक (बिना कारण) होने से सदा रहनी चाहिए अथवा कभी भी नहीं होनी चाहिए। किसी भी वस्तु की कभी भी उत्पत्ति किसी कारण से ही होती हैं । अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में कोई कारण नहीं हैं वह वस्तु कभी भी उत्पन्न नहीं होने से कभी भी न होगी अथवा सदा