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________________ श्री अष्टक प्रकरण ततः सन्नीतितोऽभावा-दमीषामसदेव हि । सर्वं यमाद्यनुष्ठानं, मोहसङ्गतमेव वा ॥४॥ अर्थ - इस प्रकार युक्तिपूर्वक अहिंसादि का अभाव होने से यम आदि सभी अनुष्ठान असत् - निरर्थक सिद्ध होते हैं । यम आदि अनुष्ठानों को उपचार से सद्- सार्थक मानने में मूढ़ता ही हैं । ४४ शरीरेणापि सम्बन्धो, नातः एवास्य सङ्गतः । तथा सर्वगतत्वाच्च संसारश्चाप्यकल्पितः ॥५॥ अर्थ - नित्य आत्मा निष्क्रिय होने के कारण उसका शरीर के साथ संबंध भी स्थापित नहीं होता (संबंध एक प्रकार की क्रिया हैं । निष्क्रिय आत्मा में क्रिया नहीं होती) नित्य आत्मा का अकल्पित-तात्त्विक संसार भी योग्य नहीं (संसार अर्थात् नरक आदि गति में परिभ्रमण । नित्य आत्मा निष्क्रिय होने से उसमें परिभ्रमण की क्रिया होगी ही नहीं) । सर्वगत आत्मा का भी तात्त्विक संसार योग्य नहीं । (सर्वगत आत्मा सर्वत्र विद्यमान होने से एक स्थल से दूसरे स्थल जाने का अवसर ही नहीं है ।) ततश्चोर्ध्वगतिर्धर्मा-दधोगतिरधर्मतः । ज्ञानान्मोक्षश्च वचनं, सर्वमेवौपचारिकम् ॥६॥ अर्थ - संसार का अभाव होते ही धर्म से ऊर्ध्वगतिस्वर्गादि, अधर्म से अधोगति - नरकादि और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं, इत्यादि शास्त्रोक्त सभी बातें औपचारिक- काल्पनिक सिद्ध होंगी ।
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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