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________________ श्री अष्टक प्रकरण निरपेक्षप्रवृत्त्यादि - लिङ्गमेतदुदाहृतम् । अज्ञानावरणापायं, महापायनिबन्धनम् ॥३॥ अर्थ - निरपेक्ष प्रवृत्ति आदि विषयप्रतिभास ज्ञान के लिंग हैं । विषय प्रतिभास ज्ञानवाले जीव की प्रवृत्ति या निवृत्ति वगैरह अपेक्षा - आलोक-परलोक के अपाय की शंका से रहित होती हैं । मेरी ऐसी प्रवृत्ति आदि से मुझे आलोक-परलोक में ऐसा फल मिलेगा, ऐसा विचार नहीं होता । अज्ञानावरण का अपाय - क्षयोपशम इस ज्ञान का कारण हैं । अर्थात् मति अज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशम से विषयप्रतिभास ज्ञान होता हैं । स्वयं तथा स्वयं के संगत में आनेवालों को आलोक-परलोक में महाकष्टों की प्राप्ति होना, यह विषयप्रतिभास ज्ञान का फल हैं । पातादिपरतन्त्रस्य तद्दोषादावसंशयम् । अनर्थाद्याप्तियुक्तं, चात्मपरिणतिमन्मतम् ॥४॥ , २९ अर्थ - पातादि से परतंत्र (सम्यग्दृष्टि) जीव के पात आदि दोष से जनित दोष आदि के संबंध में संशय - रहित और अनर्थादि की प्राप्ति से युक्त ज्ञान आत्मपरिणतिमत् ज्ञान हैं । तथाविधप्रवृत्त्यादि - व्यङ्ग्यं सदनुबन्धि च । ज्ञानावरणह्लासोत्थं, प्रायो वैराग्यकारणम् ॥५॥ - अर्थ इस ज्ञान का तथाविध (असंक्लिष्ट) प्रवृत्ति आदि लिंग हैं । आत्मपरिणतिमत् ज्ञान को प्राप्त जीव
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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