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________________ श्री अष्टक प्रकरण १७ १७ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्तते । असदारम्भिणस्तस्य, पौरुषनीति कीर्तिता ॥४॥ अर्थ - जो साधु प्रव्रज्या स्वीकारकर उसका पालन नहीं करता है, प्राणिपीडा आदि अशुभ प्रवृत्ति करता हैं, उसकी भिक्षा पौरुषघ्नी हैं। धर्मलाघवकृन्मूढो, भिक्षयोदरपूरणम् । करोति दैन्यात् पीनाङ्गः, पौरुषं हन्ति केवलम् ॥५॥ अर्थ – शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने पर भी पौरुषघ्नी भिक्षा लेनेवाला १. धर्म की लघुता करता हैं । २. (अपनी अनुचित भिक्षा को भी उचित मानने से) मूढ़ बनता हैं । ३. दीनता से भिक्षा लेकर उदरपूर्ति करता हैं । ४. इससे वह पुरुषार्थ का केवल विनाश करता हैं (पुरुषार्थ जरा भी नहीं करता । शुद्ध भिक्षा के लिए घूमना आदि नहीं करता ।) निःस्वान्धपङ्गवो ये तु, न शक्ता वै क्रियान्तरे। भिक्षामटन्ति यत्पर्थं, वृत्तिभिक्षेयमुच्यते ॥६॥ अर्थ - जो निर्धन, अंधे और लंगड़े हैं और दूसरी वृत्ति करने में असमर्थ है, इसलिए अपने जीवन निर्वाह के लिए भिक्षा ग्रहण करते है, उनकी यह भिक्षा वृत्तिभिक्षा हैं । नातिदुष्टापि चामीषा - मेषा स्यान्न ह्यमी तथा । अनुकम्पानिमित्तत्वाद्, धर्मलाघवकारिणः ॥७॥ अर्थ - वृत्ति भिक्षा सर्वसंपत्करी भिक्षा के समान
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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