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________________ पाल श्री अष्टक प्रकरण पूजा और बहुमान हैं। भगवान की आज्ञा-खंडन करके की हुई पूजा, यह भाव-पूजा तो क्या द्रव्य पूजा भी नहीं हैं । भगवान की आज्ञा का पालन अहिंसा आदि के पालन से ही होता हैं। इससे अहिंसा आदि का पालन यही बहुमानपूर्वक भगवान की अष्टपुष्पी भाव पूजा हैं । प्रशस्तो ह्यनया भावस्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः । कर्मक्षयाच्च निर्वाण-मत एषा सतां मता ॥८॥ अर्थ - शुद्ध अष्ट पुष्पी पूजा से प्रशस्त आत्म-परिणाम उत्पन्न होते हैं । प्रशस्त आत्मपरिणाम से ज्ञानावरण आदि कर्म-मल का अवश्य नाश होता हैं । संपूर्ण कर्म-क्षय से मोक्ष-प्राप्ति होती हैं । इससे विद्वान साधुओं को यह अष्टपुष्पी भाव-पूजा इष्ट हैं ।
SR No.034153
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages102
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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