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________________ ८३ अध्यात्मकल्पद्रुम भंते' का पाठ करते समय कहता है कि मैं सर्वथा सावद्य काम न करूँ किन्तु फिर बारम्बार वही कार्य किया करता है । ये सावध कर्म करके तू असत्य भाषण करनेवाला होने से प्रभु को भी धोखा देता है और मेरी तो यह धारणा है कि उस पाप के भार से भारी होने पर तेरा तो नरकगामी होना जरूरी है । " वेषोपदेशाद्युपधिप्रतारिता, ददत्यभीष्टानृजवोऽधुना जनाः । भुङ्क्षे च शेषे च सुखं विचेष्टसे, भवान्तरे ज्ञास्यसि तत्फलं पुनः ? ॥१२॥ अर्थ – “वेष, उपदेश और कपट से भ्रमित हुए भद्रक पुरुष अभी तक तुझे वाञ्छित वस्तुएँ देते हैं, तू सुख से खाता है, सोता है और भ्रमण किया करता है, परन्तु आगामी भव में इनके द्वारा होनेवाले फल की अच्छी तरह से तुझे समझ मालूम पड़ेगी ।" आजीविकादिविविधातिभृशानिशार्त्ताः, कृछ्रेण केऽपि महतैव सृजन्ति धर्मान् । तेभ्योऽपि निर्दय ! जिघृक्षसि सर्वमिष्टं, नो संयमे च यतसे भविता कथं ही ? ॥१३॥ अर्थ - " आजीविका चलाने आदि अनेक पीड़ाओं से रातदिन बहुत परेशान होते हुए अनेकों गृहस्थी महामुश्किल से धर्मकार्य कर सकते हैं उनके पास से भी हे दयाहीन
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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