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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम ७९ प्रमाद से समिति तथा गुप्ति धारण नहीं करता है, शरीर के प्रति ममत्व के कारण दोनों प्रकार के तप नहीं करता है, नहिवत् कारण से कषाय करता है, परिषह तथा उपसर्गों को सहन नहीं करता है, (अठारह हजार ) शीलांग धारण नहीं करता है फिर भी तू मोक्षप्राप्ति की अभिलाषा रखता है, परन्तु हे मुनि ! केवल वेशमात्र से संसारसमुद्र का पार कैसे पा सकेगा ?" आजीविकार्थमिह यद्यतिवेषमेष, धत्से चरित्रममलं न तु कष्टभीरुः । तद्वेत्सि किं न न बिभेति जगज्जिघृक्षु मृत्युः कुतोऽपि नरकश्च न वेषमात्रात् ॥४॥ अर्थ - "तू आजीविका के लिये ही इस संसार में यति का वेश धारण करता है, परन्तु कष्ट से डरकर शुद्ध चारित्र नहीं रखता है, तुझे इस बात का ध्यान नहीं है कि समस्त जगत् को ग्रहण करने की अभिलाषा रखनेवाली मृत्यु और नरक कभी किसी प्राणी के वेशमात्र से नहीं डरते हैं । " वेषेण माद्यसि यतेश्चरणं विनात्मन् ! पूजां च वाञ्छसि जनाद्बहुधोपधिं च । मुग्धप्रतारणभवे नरकेऽसि गन्ता, न्यायं बिभर्षि तदजागलकर्तरीयम् ॥५॥ अर्थ - "हे आत्मन् ! तू व्यवहार ( चारित्र) के बिना ही एक मात्र यति के वेश से ही गर्वित (अभिमानी ) रहता है
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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