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________________ ७२ अध्यात्मकल्पद्रुम की अभिलाषा रखता हो तो दृष्टिराग को छोड़कर अत्यन्त शुद्धगुरु की उपासना कर ।" यस्ता मुक्तिपथस्य वाहकतया श्रीवीर ! ये प्राक् त्वया लुंटाकास्त्वदृतेऽभवन् बहुतरास्त्वच्छासने ते कलौ । बिभ्राणा यतिनाम तत्तनुधियां मुष्णान्ति पुण्यश्रियः, पुत्कुर्मः किमराजके ह्यपि तलारक्षा न किं दस्यवः ॥ ६ ॥ T अर्थ - "हे वीर परमात्मा ! मोक्षमार्ग को बतलानेवाले के रूप में (सार्तवाह के रूप में) जिनको तूने पहले नियुक्त किये थे (स्थापित किये थे), वे कलिकाल में तेरी अनुपस्थिति में तेरे शासन में बड़े लुटेरे बन बैठे हैं । वे यति का नाम धारण करके अल्प बुद्धिवाले प्राणियों की पुण्यलक्ष्मी को चुरा लेते हैं। अब हम तुझसे क्या पुकार करे ? स्वामीरहित राज्य में क्या कोटवाल भी चोर नहीं हो सकते हैं ?" माद्यस्यशुद्धैर्गुरुदेवधर्मैधिग ! दृष्टिरोगेण गुणानपेक्षः । अमुत्र शोचिष्यसि तत्फले तु, कुपथ्यभोजीव महामयार्त्तः ॥७॥ अर्थ - "दृष्टि राग से गुण की अपेक्षा के बिना तू अशुद्ध देव, गुरु, धर्म के प्रति जो हर्ष प्रगट करता है उसके लिये तुझे धिक्कार है ! जिस प्रकार कुपथ्य भोजन करनेवाले अत्यन्त पीड़ा से पीड़ित होकर दुःखी होते हैं उसी प्रकार
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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