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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम सुखमास्से सुखं शेषे, भुक्षे पिबसि खेलसि । न जानेत्वग्रतः पुण्यै-विना ते किं भविष्यति ? ॥२४॥ ___ अर्थ - "सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से खाता है, सुख से पीता है और सुख से खेलता है, परन्तु तू यह क्यों नहीं जानता कि पुण्य के बिना भविष्य में तेरी क्या दशा होगी ?" शीतात्तापान्मक्षिकाकत्तृणादि स्पर्शाद्युत्थात्कष्टतोऽल्पाद्विभेषि । तास्ताश्चैभिः कर्मभिः स्वीकरोषि, श्वभ्रदीनां वेदनाधिग्धियं ते ॥२५॥ अर्थ - "शीत, ताप, मक्खी के डंक और कर्कश तृणादि के स्पर्श से होनेवाले बहुत थोड़े और अल्पस्थायी कष्टों से तो तू भय करता है किन्तु स्वकृत्यों से प्राप्त होनेवाली नरकानिगोद की महावेदनाओं को अंगीकार करता है । तेरी बुद्धि को धन्य है !!" क्वचित्कषायैः क्वचन प्रमादैः, कदाग्रहै: क्वापि च मत्सराद्यैः । आत्मानमात्मन् ! कलुषीकरोषि, बिभेषि धिङ्नो नरकादधर्मा ॥२६॥ अर्थ - "हे आत्मन् ! किसी समय कषाय के द्वारा और किसी समय प्रमाद के द्वारा, किसी समय कदाग्रह के द्वारा और किसी समय मत्सर आदि के द्वारा आत्मा को मलिन बनाता है। अरे! तुझे धिक्कार है ! कि तू अधर्म से तथा नरक से भी नहीं डरता है?"
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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