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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम के द्वारा आनंदित होते हैं, किन्तु आनेवाले भव के हितकारी कार्य की ओर यदि वे अज्ञ (अथवा लापरवाह) हों तो हमें तो उन्हें पेटु (पेट भरनेवाले) ही कहना चाहिये ।" किं मोदसे पण्डितनाममात्रात् ? शास्त्रेष्वधीती जनरञ्जकेषु । तत्किञ्चनाधीष्व कुरुष्व चाशु, न ते भवेद्येन भवाब्धिपातः ॥५॥ अर्थ - "लोकरंजनकारक शास्त्रों का तू अभ्यासी होकर पण्डित नाममात्र से क्यों कर प्रसन्न हो जाता है ? तू कोई ऐसा अभ्यास कर या फिर कोई ऐसा अनुष्ठान कर कि जिससे तुझे संसारसमुद्र में पड़ना ही न पड़े।" धिगागमैर्माद्यसि रञ्जयन् जनान्, नोद्यच्छसि प्रेत्यहिताय संयमे । दधासि कुक्षिम्भरिमात्रतां मुने, क्व ते क्व तत् क्वैष च ते भवान्तरे ॥६॥ अर्थ – “हे मुनि ! सिद्धान्तों के द्वारा तू लोगों को रंजन करके प्रसन्न होता है परन्तु स्वयं के आमुष्मिक हितनिमित्त यत्न नहीं करता है अतः तुझे धिक्कार है ! तू एक मात्र उदरपूर्ति ही धारण करता है, परन्तु हे मुनि ! भवान्तर में वे तेरे आगम कहाँ जाएँगे, वह तेरा जनरंजन कहाँ जायगा और यह तेरा संयम कहाँ चला जायगा ?"
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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