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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम आरम्भैर्भरितो निमज्जति यतः प्राणी भवाम्भोनिधावीहन्ते कुनृपादयश्च पुरुषा येन च्छ्लाद् बाधितुम् । चिन्ताव्याकुलताकृतेश्च हरते यो धर्मकर्मस्मृतिं, विज्ञा ! भूरि परिग्रहं त्यजत तं भोग्यं परैः प्रायशः ॥ ६ ॥ अर्थ - " आरम्भ के पाप से भारी हुआ प्राणी जिस धन के लिये संसारसमुद्र में डूबता है, जिस धन के परिग्रह से राजा आदि पुरुष छिद्र ढूंढ़कर दुःख देने की अभिलाषा करते हैं, अनेक चिन्ता में आकुल व्याकुल रखकर जो पैसे धर्मकार्य करने की तो याद भी नहीं आने देते और बहुधा जो दूसरों के ही उपभोग में आते हैं, ऐसे पैसों के बड़े संग्रह का हे ! पंडितो ! तुम त्याग कर दो ।" क्षेत्रेषु नो वपसि यत्सदपि स्वमेत द्यातासि तत्परभवे किमिदं गृहीत्वा ? | तस्यार्जनादिजनिताघचयार्जितात्ते, २२ - भावी कथं नरकदुःखभराच्च मोक्षः ? ॥७॥ अर्थ – “तेरे पास द्रव्य है फिर भी तू (सात) क्षेत्र में व्यय नहीं करता है, क्या तू परभव में धन को अपने साथ ले जाएगा ? यह विचार कर कि धन उपार्जन करने से होनेवाले पापसमूह के नारकीय दुःखों से तेरा मोक्ष (छुटकारा) कैसे होगा ?"
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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