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________________ १०६ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - "कान के संयममात्र से कौन शब्दो को नहीं छोड़ता ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट शब्दों पर रागद्वेष छोड़ दे उसे मुनि समझना चाहिये ।" चक्षुः संयममात्रात्के, रूपालोकांस्त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥१३॥ अर्थ – “एक मात्र चक्षु के संयम से कौन रूपप्रेक्षण नहीं छोड़ता? परन्तु इष्ट और अनिष्ट रूपों में जो रागद्वेष छोड़ देते हैं वे ही सच्चे मुनि हैं।" घ्राणसंयममात्रेण, गन्धान् कान् के त्यजन्ति न ?। इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥१४॥ अर्थ - "नासिका के संयम मात्र से कौन गंधों को नहीं छोड़ता ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट गन्धों में रागद्वेष छोड़ देते हैं वे ही मुनि कहला सकते हैं।" जिह्वासंयममात्रेण, रसान् कान् के त्यजन्ति न । मनसा त्यज तानिष्टान्, यदीच्छसि तपःफलम् ॥१५॥ अर्थ - "जीह्वा के संयममात्र से कौन रसों को नहीं छोड़ता है? हे भाई! यदि तू तप के फल मिलने की अभिलाषा रखता है तो सुन्दर जान पड़ने वाले रसों को छोड़ दे।" त्वचः संयममात्रेण, स्पर्शान् कान् के त्यजन्ति न । मनसा त्यज तानिष्टान्, यदिच्छसि तपः फलम् ॥१६॥ अर्थ - "चमड़े को स्पर्श न करने मात्र से कौन स्पर्श का त्याग नहीं करता ? परन्तु यदि तुझे तप का फल पाना
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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