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________________ ४२ इन्द्रिय पराजय शतक विलास और विव्वोअ रूपी जलचर प्राणियों से व्याप्त तथा मद रूपी मगरों से युक्त तारुण्य रुप महासमुद्र को धीरपुरुष पार कर देते हैं ॥४४॥ जइ वि परिचत्तसंगो, तवतणुअंगो तहा वि परिवडइ । महिलासंसग्गीए, कोसाभवणुसिय मुणिव्व ॥४५ ॥ अर्थ : संग का त्याग किया हो और तप से कृश शरीरवाले हो, फिर भी स्त्री के संग से कोशा भवन में रहे मुनि की तरह पतन हो जाता है ॥४५॥ सव्वगंथ विमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो य । जं पावइ मुत्तिसुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥४६॥ अर्थ : सभी प्रकार की ग्रंथियों से मुक्त, शीतल व प्रशांत चित्तवाला साधु जिस मुक्तिसुख का अनुभव करता है, वह सुख चक्रवर्ती को भी प्राप्त नहीं है ॥४६॥ खेलंमि पडिअमप्पं, जह न तरइ मच्छिआ विमोएउं । तह विसयखेलपडिअं, न तर अप्पंपि कामंधी ॥४७॥ अर्थ : जिस प्रकार श्लेष्म में गिरी हुई मक्खी उसमें से बचने के लिए समर्थ नहीं होती है, उसी प्रकार कामांध पुरुष भी विषय रूपी श्लेष्म में गिरकर अपनी आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं हो पाता है ॥४७॥ जं लहइ वी अराओ, सुक्खं तं मुणइ सुच्चिय न अन्नो । न हि गत्ता सूअरओ, जाणइ सुरलोइअं सुक्खं ॥ ४८ ॥
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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