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________________ वैराग्यशतक वैराग्यशतक संसारम्मि असारे, नत्थि सुहं वाहि-वेअणा-पउरे । जाणंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥१॥ अर्थ : व्याधि-वेदना से प्रचुर इस असार-संसार में लेश भी सुख नहीं है...यह जानते हुए भी जीवात्मा जिनेश्वर भगवन्त द्वारा निदिष्ट धर्म का आचरण नहीं करता है ॥१॥ अज्जं कल्लं परं परारिं, पुरिसा चिंतंति अत्थसंपत्तिं । अंजलिगयं व तोयं, गलंतमाउं न पिच्छंति ॥२॥ अर्थ : आज मिलेगा...कल मिलेगा...परसों मिलेगा । इस प्रकार अर्थ / धन की प्राप्ति की आशा में रहा मनुष्य अंजलि में रहे हुए जल की भाँति क्षीण होते आयुष्य को नहीं देखता है ॥२॥ जं कल्ले कायव्वं, तं अज्जं चिय करेह तुरमाणा । बहुविग्यो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिक्खेह ॥३॥ अर्थ : जो धर्मकार्य कल करने योग्य है, उसे आज ही शीघ्र कर लो । मुहूर्त (काल) अनेक विघ्नों से भरा हुआ है, अतः अपराह्न पर मत डालो ॥३॥ ही संसार-सहावं, चरियं नेहाणुरागरत्ता वि । जे पुव्वण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हे न दीसंति ॥४॥ अर्थ : अहो ! संसार का स्वभाव कैसा है ? जो पूर्वाह्न
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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