SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ इन्द्रिय पराजय शतक विसए अवइक्खंता, पडंति संसारसायरे घोरे । विसएस निराविक्खा, तरंति संसार कंतार ॥२९॥ अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाले जीव भयंकर संसार सागर में डूब जाते हैं, जबकि विषयों के प्रति निरपेक्ष रहनेवाले जीव संसार - अटवी को पार कर जाते हैं ||२९|| छलिआ अवइक्खता, निरावड़क्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे, निरावइक्खेण होअव्वं ॥३०॥ अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाले जीव ठगे गए हैं, जबकि जो विषयों से निरपेक्ष हैं, वे निर्विघ्नतया पार उतर गए हैं । अतः प्रवचन का सार यही है कि विषयों के प्रति निरपेक्ष बनना चाहिए ||३०|| विसयाविक्खो निवड, निरविक्खो तर दुत्तर भवोहं । देवी दीव समागय-भाउअजुअलेण दिट्टंतो ॥३१॥ अर्थ : विषयों की अपेक्षा रखनेवाला संसार में डूबता है और विषयों से निरपेक्ष रहनेवाले संसार - सागर से पार उतर जाते हैं। देवी-द्वीप पर आए भ्रातृयुगल का यहाँ दृष्टान्त है ॥३१॥ जं अइतिक्खं दुक्खं, जं च सुहं उत्तमं तिलोयंमि । तं जाणसु विसयाणं, वुड्डिक्खय हेउअं सव्वं ॥३२॥ अर्थ : तीन लोक में जो अति दुःख है और जो उत्तम सुख है, वह विषयों की वृद्धि और क्षय के कारण है, ऐसा
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy