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________________ वैराग्यशतक मिच्छे अणंतदोसा, पयडा दीसंति न वि य गुणलेसो । तह वि य तं चेव जिया, ही मोहंधा निसेवंति ॥९८॥ अर्थ : मिथ्यात्व में प्रगट अनंत दोष दिखाई देते हैं और उसमें गुण का लेश भी नहीं है, फिर भी आश्चर्य है कि मोह से अन्धे बने हुए जीव उसी मिथ्यात्व का सेवन करते हैं ॥९८॥ धी धी ताण नराणं, विन्नाणे तह गुणेसु कुसलत्तं । सुह सच्च धम्म रयणे, सुपरिक्खं जे न जाणंति ॥९९॥ अर्थ : जो सुखदायी और सत्यधर्मरूप रत्न की अच्छी तरह से परीक्षा नहीं कर सकते हैं, उन पुरुषों के विज्ञान और गुणों की कुशलता को धिक्कार हो ! धिक्कार हो !! ॥९९॥ जिणधम्मोऽयं जीवाणं, अपुव्वो कप्पपायवो। सग्गापवग्गसुक्खाणं, फलाणं दायगो इमो ॥१०॥ अर्थ : यह जिनधर्म जीवों के लिए अपूर्व कल्पवृक्ष है। यह धर्म स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का फल देने वाला है॥१००॥ धम्मो बंधु सुमित्तो य, धम्मो य परमो गुरु । मुक्खमग्ग पयट्टाणं, धम्मो परमसंदणो ॥१०१॥ अर्थ : धर्म बन्धु और अच्छा मित्र है। धर्म परमगुरु है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए धर्म श्रेष्ठ रथ है ॥१०१॥
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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