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________________ वैराग्यशतक अर्थ : अनंत दुःख के कारणरूप धन, स्वजन और वैभव आदि में तू ममता करता है और अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष में अपने आदरभाव को शिथिल करता है ॥७७॥ संसारो दुहहेऊ, दुक्खफलो दुस्सहदुक्खरूवो य। न चयंति तं पि जीवा, अइबद्धा नेहनिअलेहिं ॥७८॥ अर्थ : जो दुःख का कारण है, दुःख का फल है और जो अत्यन्त दुःसह ऐसे दुखोंवाला है, ऐसे संसार को, स्नेह की साँकल से बँधे हुए जीव छोड़ते नहीं हैं ॥७८॥ नियकम्म पवण चलिओ जीवो संसार काणणे घोरे। का का विडंबणाओ, न पावए दुसह दुक्खाओ ॥७९॥ अर्थ : अपने कर्मरूपी पवन से चलित बना हुआ यह जीव इस संसार रूपी घोर जंगल में असह्य वेदनाओं से युक्त कौन कौनसी विडंबनाओं को प्राप्त नहीं करता है ॥७९॥ सिसिमि सीयलानिल-लहरिसहस्सेहिं भिन्न घणदेहो । तिरियत्तणंमि रणे, अणंतसो निहण मणुपत्तो ॥८०॥ अर्थ : हे आत्मन् ! तिर्यंच के भव में ठण्डी ऋतु में ठण्डी लहरियों से तेरा पुष्ट देह भेदा गया और तू अनन्ती बार मरा है ॥८०॥ गिम्हायवसंतत्तो, रण्णे छुहिओ पिवासिओ बहुसो । संपत्तो तिरियभवे, मरणदुहं बहू विसूरंतो ॥८१॥
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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