SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ वैराग्यशतक निहरीअ कह वि तत्तो, पत्तो मणुयत्तणं पि रे जीव । तत्थ वि जिणवर धम्मो, पत्तो चिंतामणि सरिच्छो ॥५१॥ अर्थ : हे जीव ! किसी भी प्रकार से वहाँ से निकलकर तूने मनुष्यपना को प्राप्त किया और उसमें भी चिंतामणि रत्न के समान जिनेश्वर का धर्म तुझे प्राप्त हुआ ॥५१॥ पत्ते वि तंमि रे जीव ! कुणसि पमायं तुमं तयं चेव । जेण भवंध कूवे पुणो वि पडिओ दुहं लहसि ॥५२॥ __ अर्थ : हे जीव ! वह श्रेष्ठ धर्म प्राप्त होने पर भी तू पुनः वही प्रमाद करता है कि जिसके फलस्वरूप इस संसार रूपी अन्ध कुएँ में गिरकर दुःख को प्राप्त करेगा ॥५२॥ उवलद्धो जिणधम्मो न य अणुचिण्णो पमायदोसेण । हा ! जीव ! अप्पवेरिअ, सुबहु पुरओ विसूरिहिसि ॥५३॥ अर्थ : हे जीव ! तुझे जिनधर्म की प्राप्ति हुई, परन्तु प्रमाद दोष के कारण तूने उसका आचरण नहीं किया । हे आत्मवैरी ! परलोक में तू बहुत खेद प्राप्त करेगा ॥५३॥ सोयंति ते वराया, पच्छा समुवट्टियंमि मरणंमि । पावपमायवसेण, न संचियो जेहि जिणधम्मो ॥५४॥ अर्थ : पापरूप प्रमाद के वशीभूत होकर जिन्होंने जिनधर्म का संचय नहीं किया, वे बेचारे ! मृत्यु के उपस्थित होने पर शोक करते हैं ॥५४॥
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy