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________________ वैराग्यशतक १३ उपेक्षा करता हूँ ? धर्म रहित दिन प्रसार कर रहा हूँ ! ||३९|| जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ | अहम्मं कुणमाणस्स, अहला जंति राइओ ॥४०॥ अर्थ : जो-जो रातें बीत जाती हैं, वे वापस नहीं लौटती हैं । अधर्म करनेवाले की सभी रातें निष्फल ही जाती हैं । जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥ ४१ ॥ अर्थ : जिसे मृत्यु से दोस्ती है अथवा जो मृत्यु से भाग सकता है अथवा जो यह जानता है कि मैं मरनेवाला नहीं हूँ, वही सोच सकता है कि मैं कल धर्म करूँगा ॥४१॥ दंड कलियं करिंता, वच्चंति हु राइओ अ दिवसा य । आउस सविलंता गयावि न पुणो नियत्तंति ॥४२॥ अर्थ : हे आत्मन् ! दंड से उखेड़े जाते हुए सूत्र की तरह रात और दिन आयुष्य को उखेड़ रहे हैं, परन्तु बीते हुए वे दिन वापस नहीं लौटते हैं ॥४२॥ जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं णेइ हु अंतकाले । ण तस्स माया व पिया व माया, कालंमि तंमि सहरा भवंति ॥४३॥ अर्थ : जिस प्रकार यहाँ सिंह मृग जाते हैं, उसी प्रकार अंत समय में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर को पकड़कर ले
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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