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________________ प्रशमरति यश्चेह जिनवरमते गृहाश्रमी निश्चितः सुविदितार्थः। दर्शन-शील-व्रतभावनाभिरभिरञ्जितमनस्कः ॥३०३॥ अर्थ : इस मनुष्य लोक में, जो गृहस्थ जिनमत में विश्वास रखता है, तत्त्वार्थ को भलीभांति जानता है और सम्यग्दर्शन-शील-व्रत, भावनाओं से अपने मन को वासित रखता है ॥३०॥ स्थूलवधानृतचौर्यपरस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम् । दिग्व्रतमिह देशावकाशिकमनर्थविरतिं च ॥३०४॥ अर्थ : स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, परस्त्री, रति-अरति का सतत त्याग करता है । दिशाव्रत, देशावकारिक व्रत, अनर्थदण्डविरति व्रत ॥३०४॥ सामायिकं च कृत्वा पौषधमुपभोगपारिमाण्यं च । न्यायागतं च कल्प्यं विधिवत् पात्रेषु विनियोज्यम् ॥३०५॥ अर्थ : सामायिकव्रत, पौषधव्रत और भोगोपभोगपरिमाण करके न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए अन्नादि द्रव्य को विधिपूर्वक सुपात्र में देता है ॥३०५॥ चैत्यायतनप्रस्थापनानि कृत्वा च शक्तितः प्रयतः । पूजाश्च गन्धमाल्याधिवासधूपप्रदीपाद्याः ॥३०६॥ अर्थ : शक्ति के मुताबिक प्रयत्नपूर्वक चैत्यालयों की प्रतिष्ठा करके, गंध-माला-अधिवास-धूप-दीपक वगैरह से
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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