SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशमरति वाले [केवलज्ञानी] एक मुहूर्त तक या कुछ कम [वर्ष] वैसे 'एक क्रोड़ पूर्व' बरस तक विचरते हैं ॥२७१॥ तेनाभिन्नं चरमभवायुर्दुर्भेदमनपवर्तित्वात् । तदुपग्रहं च वेद्यं तत्तुल्ये नामगोत्रे च ॥२७२॥ अर्थ : अन्तिम भव का आयुष्य अभेद्य होता है...चूंकि उसका अपवर्तन नहीं होता [घटाया नहीं जा सकता !] उससे [आयुष्य से] उपग्रहित वेदनीय कर्म भी उसके जितना ही होना चाहिए । [आयुष्य कर्म की जितनी स्थिति हो उतनी ही स्थिति वेदनीय कर्म की होनी चाहिए नामकर्म व गोत्रकर्म भी उसके समान होने चाहिए ॥२७२॥ यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् । स समुद्घातं भगवानथ गच्छति तत् समीकर्तुम् ॥२७३॥ अर्थ : जिन केवलज्ञानी को आयुष्यकर्म से ज्यादा स्थिति के वेदनीयादि कर्म होते हैं वे भगवान वेदनीयादि तीन कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर-समान करने के लिए 'समुद्धात' करते हैं ॥२७३॥ दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये। मन्थानमथ तृतीये, लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥२७४॥ अर्थ : पहले समय में दण्ड, दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में मन्थान और चौथे समय में लोकव्यापी होता है ॥२७४॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy