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________________ ८० प्रशमरति तेजयुक्त [शक्तियुक्त] ध्यानाग्नि होती है। चूंकि उसमें तप, प्रशम और संवर को भी डाला गया होता है । उससे ध्यानानल की शक्ति बढ़ती है ॥२६४॥ क्षपकश्रेणिमुगपतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्मसंक्रमः स्यात् परकृतस्य ॥२६५॥ ___ अर्थ : क्षपकश्रेणि पर चढ़ी हुई वह आत्मा, यदि दूसरे जीवों के द्वारा बांधे गये कर्मो का [स्वयं में] संक्रमण हो सकता हो तो, अकेले ही सभी जीवों के कर्मों का क्षय करने में समर्थ होती है ॥२६५॥ परकृतकर्माणि यस्मान्नाक्रामति संक्रमो विभागो वा । तस्मात् सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वद्यम् ॥२६६॥ अर्थ : परन्तु एक जीव के कर्म दूसरे जीव के कर्मों में न तो सम्पूर्णता संक्रमित होते हैं न ही एकाध अंश-हिस्सा उसमें मिल सकता है। अतः जो जीव कर्म बांधता है वही जीव कर्म भुगतता है ॥२६६॥ मस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत् कर्मविनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥२६७॥ अर्थ : तालवृक्ष को चोटी पर जो सूचि-शाखा ऊगी हुई रहती है, उस शाखा का नाश करने से जैसे तालवृक्ष का नाश अवश्यमेव हो जाता है, उसी भांति मोहनीयकर्म का क्षय होते
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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