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________________ ७६ प्रशमरति अर्थ : इस तरह संसार से सर्वदा भयभीत, क्षमाशील, अभिमानरहित, मायारूप कालिमा को धो डालने से उज्वल निर्मल एवं सर्व तृष्णा के विजेता बने हुए साधु को ॥२५१॥ तुल्यारण्यकुलाकुलविविक्तबन्धुजनशत्रुवर्गस्य । समवासीचन्दनकल्पनप्रदेहादिदेहस्य ॥२५२॥ अर्थ : जिसके लिये वन और नगर [जनपद] समान हैं...स्वजनवर्ग और शत्रुवर्ग जिसकी आत्मा से अलग हैं [अर्थात् मित्र-शत्रु पर तुल्यवृत्ति है] कोई बांस से शरीर को चीर डाले या कोई चन्दन से देह को विलेपन करे...दोनों के प्रति जिसे समान भाव है वैसे साधु को ॥२५२॥ आत्मारामस्य सतः समतृणमणिमुक्तलोष्ठकनकस्य । स्वाध्यायध्यानपरायणस्य दृढमप्रमत्तस्य ॥२५३॥ अर्थ : आत्मा में ही रममाण, तृण एवं मणि को एकसा समझने वाला, मिट्टी की भांति सोने का भी त्यागी, स्वाध्याय ध्यान में तत्पर, प्रमाद से बिल्कुल निर्लेप वैसे साधु को ॥२५३॥ अध्यवसायविशुद्धेः प्रशस्तयोगैविशुद्ध्यमानस्य । चारित्रशुद्धिमग्रयामवाप्य लेश्याविशुद्धिं च ॥२५४॥ अर्थ : अध्यवसायविशुद्धि के कारण प्रमत्तयोगों की
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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