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________________ प्रशमरति धर्मध्यानाभिरतस्त्रिदण्डविरतस्त्रिगुप्तिगुप्तात्मा । सुखमास्ते निर्द्वन्द्वो जितेन्द्रियपरिषहकषायः ॥२४१ ॥ ७३ अर्थ : धर्मध्यान में लयलीन, तीन दण्ड [मनदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड] से विरत, तीन गुप्ति से गुप्त - सुरक्षित, इन्द्रिय- परिषह - कषाय के विजेता निर्द्वन्द्व मुनि सुखपूर्वक रहते हैं || २४१ ॥ विषयसुखनिरभिलाषः प्रशमगुणगणाभ्यलंकृतः साधुः । द्योतयति यथा सर्वाण्यादित्यः सर्वतेजांसि ॥२४२॥ अर्थ : जैसे सूरज, तारा वगैरह के प्रकाश अभिभूत करके (स्वयं के तेज से) प्रकाशमान होता है, वैसे ही विषयसुख की अभिलाषा से रहित एवं प्रशमगुणों के समूह से सुशोभित मुनि (देव - मनुष्य वगैरह के तेज सुख को अभिभूत करके) प्रकाशमान होता है || २४२ ॥ सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी विरतितपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं न लभते गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते ॥२४३॥ अर्थ : सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और व्रत - तपोबलयुक्त होने पर भी जो साधक उपशान्त नहीं होता है वह, वैसे गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता, जिन गुणों को प्रशमसुख में डूबा हुआ साधक प्राप्त करता है ॥२४३॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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