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________________ ६८ प्रशमरति समानार्थक हैं व परिणाम, निसर्ग, स्वभाव-ये तीन एकार्थ हैं ॥२२३॥ एतत्सम्यग्दर्शनमनधिगमविपर्ययौ तु मिथ्यात्वम् । ज्ञानमथ पञ्चभेदं तत् प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥२२४॥ अर्थ : यह सम्यग्दर्शन है । अनधिगम [तत्त्वार्थ की अश्रद्धा] और विपर्यय [विपरीत श्रद्धा] मिथ्यात्व है। ज्ञान के पाँच भेद हैं । उसके प्रकार हैं : प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ॥२२४॥ तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिबोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं चावधिमन:पर्यायौ केवलं चेति ॥२२५॥ अर्थ : उसमें (पाँच ज्ञान में) परोक्षज्ञान जिसे दो तरह का जानना चाहिए । श्रुतज्ञान एवं आभिनिबोधिक ज्ञान । और अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान-इन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान जानना चाहिए ॥२२५॥ एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुर्थ्य इति ॥२२६॥ अर्थ : इन ज्ञानों के उत्तर भेद एवं विषय वगैरह से विस्तृत ज्ञान होता है। एक जीव में एक से लेकर चार ज्ञान तक के विभाग करने चाहिए ॥२२६।।
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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