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________________ ६६ ६ प्रशमरति अर्थ : स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, प्रकाश [चन्द्र का] और ताप [सूर्य का] ॥२१६।। कर्मशरीरमनोवाग्विचेष्टितोच्छासदुःखसुखदाः स्युः। जीवितमरणोपग्रहकराश्च संसारिणः स्कन्धाः ॥२१७॥ अर्थ : संसारी जीवों के कर्म [ज्ञानावरणादि] शरीर, मन, वचन, क्रिया, श्वास-उच्छास, सुख-दुःख देने वाले स्कंध [पुद्गल] हैं, जीवन और मरण में सहायक स्कंध है [ये सभी पुद्गल के उपकार हैं] ॥२१७।। परिणामवर्तनाविधिः परापरत्वगुणलक्षणः कालः । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रवीर्यशिक्षागुणा: जीवाः ॥२१८॥ अर्थ : परिणाम, वर्तना की विधि, परत्व-अपरत्वगुण काल के लक्षण हैं । सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, वीर्य एवं शिक्षा [ये] जीव के गुण हैं ॥२१८॥ पुद्गलकर्म शुभं यत् तत् पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥२१९॥ अर्थ : जो पुद्गल कर्म शुभ है वह पुण्य है, ऐसा जिनशासन में देखा गया है। जो अशुभ है वह पाप है। ऐसा सर्वज्ञ के द्वारा कथित है ॥२१९।।
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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