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________________ प्रशमरति ४९ अशुचिकरणसामर्थ्यादाद्युत्तरकारणाशुचित्वाच्च । देहस्याशुचिभावः स्थाने स्थाने भवति चिन्त्यः ॥१५५॥ अर्थ : शरीर की शक्ति [पवित्र ऐसे द्रव्य को भी] अपवित्र करनेवाली होने से और उसके आदिकारण तथा उत्तरकारण अपवित्र होने से, प्रत्येक स्थान में (शरीर के) देह को अशुचि भाव का चिन्तन करना चाहिए ॥१५५॥ माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे। व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥१५६॥ अर्थ : संसार में (जीव) माता बनकर (मरकर) बेटीबहन और पत्नी बनता है...और पुत्र (मरकर) पिता-भ्राता और शत्रु बनता है ॥१५६॥ मिथ्यादृष्टिरविरतः प्रमादवान् यः कषायदण्डरुचिः। तस्य तथास्त्रवकर्माणि यतेत तन्निग्रहे तस्मात् ॥१५७॥ अर्थ : जो (जीवात्मा) मिथ्यादृष्टि अविरत, प्रमादी और कषाय व दण्ड में रूचि रखता है उसे कर्मों का आश्रव होता है, अतः उसका निरसन करने के लिए (आश्रवों को रोकने के लिए) प्रयत्न करना चाहिए ॥१५७॥ या पुण्यपापयोरग्रहणे वाक्कायमानसी वृत्तिः। सुसमाहितो हितः संवरो वरददेशितश्चिन्त्यः ॥१५८॥ अर्थ : मन-वाणी-वर्तन की जिस प्रवृत्ति से पुण्य और
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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