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________________ प्रशमरति यद्यप्यनन्तगमपर्यायार्थहेतुनयशब्दरत्नाढ्यम् । सर्वज्ञशासनपुरं प्रवेष्टुमबहुश्रुतैर्दुःखम् ॥३॥ अर्थ : अनन्त गम (अर्थ-मार्ग) पर्याय (द्रव्य की अवस्था) अर्थ (पद के अर्थ) हेतु (कारण) नय (नैगम संग्रहादि) शब्द (शब्दप्राभृत में प्रतिपादित) इन विविध रत्नों से वैभवयुक्त एवं गहन ऐसे सर्वज्ञ शासन रूपी नगर में, हालांकि अबहुश्रुत जीवों के लिए प्रवेश करना अशक्य ही है ॥३॥ श्रुतबुद्धिविभवपरिहीणकस्तथाऽप्यहमशक्तिमविचिन्त्य । द्रमक इवावयवोञ्छकमन्वेष्टुं तत्प्रवेशेप्सुः ॥४॥ अर्थ : श्रतज्ञान एवं औत्पातिकी वगैरह बद्धि-वैभव से रहित होते हुए भी मैं (ग्रन्थकार) अपनी अशक्ति की परवाह किये बिना, रंक व्यक्ति की भांति (जैसे रंक व्यक्ति बिखरे हुए धान्य कणों का संचय करता है ठीक वैसे) बिखरे हुए प्रवचन-अर्थ रूप अवयव (दानों) की गवेषणा करने के लिए उसमें (सर्वज्ञ-शासनरूपी नगर में) प्रवेश पाना चाहता हूँ ॥४॥ बहुभिर्जिनवचनार्णवपारगतैः कविवृषैर्महामतिभिः । पूर्वमनेकाः प्रथिताः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयः ॥५॥ अर्थ : जिनवचनरूपी सागर की सीमा तक पहुँचे हुए चौदह पूर्वधरों ने जो कि श्रेष्ठ कवि थे, बुद्धिवैभव के धनी थे, उन्होंने मेरे से पहले वैराग्य को पैदा करनेवाली अनेक
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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