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________________ ४० प्रशमरति यावत् स्वविषयलिप्सोरक्षसमूहस्य चेष्ट्यते तुष्टौ । तावत् तस्यैव जये वरतरमशठं कृतो यत्नः ॥ १२३॥ अर्थ : अपने विषयों की इच्छुक इन्द्रियों के समूह की सन्तुष्टि के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है... उतना प्रयत्न निष्कपटतया उसे [इन्द्रियों के समूह को ] जीतने में किया जाय, वह श्रेष्ठ है ॥ १२३ ॥ यत् सर्वविषयकांक्षोद्भवं सुखं प्राप्यते सरागेण । तदनन्तकोटिगुणितं मुधैव लभते विगतरागः ॥ १२४॥ अर्थ : सर्व विषयों की आकांक्षा में से पैदा हुआ जो सुख रागी जीवात्मा को मिलता है, उससे अनन्त कोटिगुण सुख बिना मूल्य का रागरहित जीवात्मा को मिलता है ॥ १२४ ॥ इष्टवियोगाप्रियसंप्रयोगकांक्षासमुद्भवं दुःखम् । प्राप्नोति यत्सरागो न संस्पृशति तद्विगतरागः ॥ १२५ ॥ अर्थ : इष्ट वियोग में और अप्रिय संयोग में, इष्ट के संयोग की इच्छा में से और अप्रिय के वियोग की इच्छा में से पैदा होने वाला दुःख जिसे सरागी पाता है, वीतराग उस दुःख का स्पर्श भी नहीं करते ॥ १२५ ॥ प्रशमितवेदकषायस्य हास्यरत्यरतिशोकनिभृतस्य । भयकुत्सानिरभिभवस्य यत्सुखं तत्कुतोऽन्येषाम् ॥१२६॥ अर्थ : जिसने वेद और कषायों को शान्त कर दिया है,
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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