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________________ प्रशमरति ३१ को एक ही बार में ग्रहण करने में सक्षम ] आदि [ धारणा ] होने पर भी, बुद्धि के अंगों के [सुश्रुषा, प्रतिप्रश्न, ग्रहण इत्यादि] जो विकल्प अनन्त पर्यायों से वृद्ध [क्षयोपशमजनित विशिष्ट बुद्धि प्रकार] हैं, उनके होने पर भी ॥ ९१ ॥ पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । श्रुत्वा सांप्रतपुरुषाः कथं स्वबुद्ध्या मदं यान्ति ! ॥ ९२ ॥ अर्थ : पूर्वकाल के पुरुषसिंहो के [ गणधर - चौदह पूर्वधर वगैरह के] विज्ञान के प्रकर्षरूप सागर का अनंतपना जानकर, वर्तमानकालीन (पंचम आरे के) पुरुष कैसे अपनी बुद्धि का अभिमान कर सकते हैं ? ॥९२॥ द्रमकैरिव चाटुकर्मकमुपकारनिमित्तकं परजनस्य । कृत्वा यद्वाल्लभ्यकमवाप्यते को मदस्तेन ? ॥९३॥ अर्थ : भिखारियों की तरह, उपकारनिमित्तक दूसरे व्यक्ति का चाटुकर्म (प्रिय भाषण) करके लोकप्रियता मिलती है, उससे क्या मद करना ? || ९३॥ गर्वं परप्रसादात्मकेन वाल्लभ्यकेन यः कुर्यात् । तद्वाल्लभ्यकविगमे शोकसमुदयः परामृशति ॥९४॥ अर्थ : दसरों की कृपारूप लोकप्रियता से जो अभिमान करता है, लोकप्रियता जाते ही उसे शोक आ घेरता है ॥९४॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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