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________________ १६ प्रशमरति जो जो चेष्टाएँ करता है [ मन-वचन-काया का क्रिया करता है] उससे दु:ख प्राप्त करता है । [ दुःख की अनुभूति करता है ||४०||] कलरिभितमधुरगान्धर्वतूर्य: योषिद्विभूषणरवाद्यैः । श्रोत्रावबद्धहृदयो हरिण इव विनाशमुपयाति ॥ ४१ ॥ अर्थ : कलायुक्त [ मात्रायुक्त ] रिभित [गांधर्व आवाज] एवं मधुर [ ऐसे] गन्धर्व के वाजिंत्रों की ध्वनि और स्त्रियों के आभूषणों से उत्पन्न ध्वनि आदि, ऐसे मनोहारी शब्दों से श्रोत्रेन्द्रियपरवश हृदय हैं उन हिरणों की भांति [प्रमादी] विनाश पाता है ॥४१॥ गतिविभ्रमेङ्गिताकारहास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः । रूपावेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विवशः ॥ ४२ ॥ अर्थ : सविकार गति, स्निग्ध दृष्टि, मुँह - छाती आदि आकार, सविलास हास्य और कटाक्ष से विक्षिप्त [मनुष्य ], स्त्री के रूप में जिसने अपनी दृष्टि स्थापित की है और जो विवश बना है वह मनुष्य पतंगे की भांति जलकर नष्ट होता है ॥४२॥ स्नानाङ्गरागवर्तिकवर्णकधूपाधिवासपटवासैः । गन्धभ्रमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥४३॥ अर्थ : स्नान, विलेपन, (विविध) वर्णीय अगरबत्ती,
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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