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________________ ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वात्, त्रसत्वं पुनर्दुर्लभं देहभाजाम् । त्रसत्वेऽपि पञ्चाक्षपर्याप्तसंज्ञिस्थिरायुष्यवद् दुर्लभं मानुषत्वम् ॥१५८ ॥ भुजंगप्रयातम् अर्थ :- निगोद में से निकले हुए जीव स्थावर अवस्था को प्राप्त करते हैं, क्योंकि प्राणी को त्रसत्व की प्राप्ति तो अत्यन्त दुर्लभ है। उस त्रसत्व की प्राप्ति के बाद भी पञ्चेन्द्रिय अवस्था, संज्ञित्व, दीर्ध आयुष्य तथा मनुष्य की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है ॥१५८॥ तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो, महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः । भ्रमन् दूरमग्नो भवागाधगर्ने, पुनः क्व प्रपद्येत तद्बोधिरत्नम् ? ॥१५९ ॥ भुजंगप्रयातम् अर्थ :- मनुष्य अवस्था पाने के बाद भी महामोह मिथ्यात्व और माया से व्याप्त मूढ प्राणी संसार रूपी महागर्त में पड़ा हुआ, ऐसा निमग्न हो जाता है कि उसे बोधिरत्न की प्राप्ति भी कहाँ से हो ॥१५९॥ विभिन्नाः पन्थानः प्रतिपदमनल्पाश्च मतिनः, कुयुक्तिव्यासङ्गैर्निजनिजमतोल्लासरसिकाः । न देवाः सान्निध्यं विदधति न वा कोऽप्यतिशयस्तदेवं कालेऽस्मिन् य इह दृढधर्मा स सुकृती ॥१६० ॥ शिखरिणी शांत-सुधारस ६३
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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